सूत जी बोले- हे मुनियो! अब मैं आपको काशीपुरी में स्थित अविमुक्त ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य सुनाता हूं।
एक बार जगदंबा माता पार्वती ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव से विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा पूछी थी। तब अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का प्रश्न सुनकर भगवान शिव बोले- हे प्रिये ! मनुष्य को भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाला उत्तम धाम काशी है। मेरा प्रिय स्थान होने के कारण काशी में अनेक सिद्ध और योगी पुरुष आकर मेरे अनेकों रूपों का वर्णन करते हैं। काशी में मृत्यु को प्राप्त करने वाले मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। वह सीधे शिवलोक को प्राप्त करता है। स्त्री पवित्र हो या अपवित्र, कुंआरी हो या सुहागन या अन्य काशी में मरकर मोक्ष को प्राप्त करती हैं। काशी में निवास करने वाले भक्तजन बिना जाति, वर्ण, ज्ञान, कर्म, दान, संस्कार, स्मरण अथवा भजन के सीधे मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
हे उमे! जिस विशेष कृपा को पाने के लिए ब्रह्माजी एवं श्रीहरि विष्णु ने जन्म-जन्मांतरों तक तपस्या की, वह काशी नगरी में मरने से ही प्राप्त हो जाती है। मनुष्य योग्य, अयोग्य कर्म करे या धर्म अथवा अधर्म के मार्ग पर चले, इस काशीपुरी में मृत्यु पाकर जीवन-मरण के बंधनों से छूट जाता है। हे देवी! जो काशी नगरी में निवास करते हुए भक्तिपूर्वक मेरा ध्यान, स्मरण करता है अथवा मेरी आराधना अथवा तपस्या करता है, उसके पुण्यों की महिमा का वर्णन करना तो मेरे लिए भी असंभव है। वे सब मुझमें ही स्थित हैं। शुभ कर्मों से स्वर्ग प्राप्त होता है एवं अशुभ कर्मों से नरक की प्राप्ति होती है। हमारे द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों से ही जन्म-मरण निश्चित होता है तथा सुख की प्राप्ति होती है ।
पार्वती!
तीन प्रकार के कर्म होते हैं-
- पहले जन्म में किए कर्म संचित होते हैं,
- इस जन्म में किए हुए क्रियमाण हैं,
- दोनों के द्वारा मिल रहा फल, जो शरीर में भोगे जा रहे हैं, प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं।
संचित तथा क्रियमाण कर्मों को दान-दक्षिणा देकर एवं पुण्य कर्मों द्वारा कम अथवा खत्म किया जा सकता है परंतु प्रारब्ध कर्मों को मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। काशीपुरी में किया गया गंगा स्नान संचित एवं क्रियमाण कर्मों को नष्ट कर देता है । प्रारब्ध कर्म काशी में मृत्यु से ही नष्ट होते हैं। काशी का रहने वाला यदि कोई पाप करता है तो काशी के पुण्य प्रताप से तुरंत ही पाप से मुक्त हो जाता है।
हे ऋषिगणो! इस प्रकार काशी नगरी एवं विश्वेश्वर लिंग का माहात्म्य मैंने आपको सुनाया है जो कि भक्तों एवं ज्ञानियों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है।
काशीपुरी का माहात्म्य
सूत जी बोले – हे मुनिवरो! इस पृथ्वी लोक में दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु सच्चिदानंद स्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है। वह अद्वितीय परमात्मा ही सगुण रूप में शिव कहलाए और दो रूपों में प्रकट हुए। वे शिव ही पुरुष रूप में शिव एवं स्त्री रूप में शक्ति नाम से प्रसिद्ध हुए। शिव शक्ति ने मिलकर दो चेतन अर्थात प्रकृति एवं पुरुष (विष्णु) की रचना की है । तब प्रकृति एवं पुरुष अपने माता-पिता को सामने न पाकर सोच में पड़ गए। उसी समय आकाशवाणी हुई।
आकाशवाणी बोली- तुम दोनों को जगत की उत्पत्ति हेतु तपस्या करनी चाहिए। तभी सृष्टि का विस्तार होगा। वे दोनों बोले- हे स्वामी! हम कहां जाकर तपस्या करें? यहां पर तो ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां तपस्या की जा सके। तब भगवान शिव ने पांच कोस लंबे-चौड़े शुभ व सुंदर नगर की तुरंत रचना कर दी।
वे दोनों त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके वहां तपस्या करने लगे। उन्हें इस प्रकार तपस्या करते-करते बहुत समय बीत गया। उनकी कठिन तपस्या के कारण उनके शरीर से पसीने की बूंदें निकलीं। उन श्वेत जल की बूंदों को गिरता हुआ देखकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपना सिर हिलाया तभी उनके कान से एक मणि गिरी और वह स्थान मणिकर्णिका नाम से प्रसिद्ध हो गया। जब उनके शरीर से निकली जलराशि से वह नगरी बहने लगी तब कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने त्रिशूल की नोक पर उसे रोक लिया।
तपस्या में किए गए परिश्रम से थककर विष्णु तथा उनकी पत्नी प्रकृति वहीं उसी नगर में सो गए। तब शिवजी की प्रेरणा स्वरूप विष्णुजी की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ। उसी कमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए भगवान शिव की आज्ञा पाकर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना आरंभ कर दी । ब्रह्माजी ने पचास करोड़ योजन लंबा और पचास करोड़ योजन चौड़ा ब्रह्माण्ड रच दिया। इसमें चौदह अद्भुत लोकों का भी निर्माण ब्रह्माजी ने किया। इस प्रकार जब सर्वेश्वर शिव की आज्ञा से ब्रह्माजी द्वारा ब्रह्माण्ड का निर्माण हो गया तब भक्तवत्सल भगवान शिव के मन में विचार आया कि इस संसार के सभी प्राणी तो कर्मपाश में बंधे रहेंगे। सांसारिक मोह-माया में पड़कर भला वे मुझे किस प्रकार पा सकेंगे।
ऐसा सोचकर त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से पांच कोस नगरी उतारकर ब्रह्माण्ड से अलग की। तत्पश्चात उसमें अपने अविमुक्ति ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दी। यही पंचकोसी, कल्याणदायिनी, ज्ञानदात्री एवं मोक्षदात्री नगरी काशी कहलाई। भगवान शिव ने इस नगरी में अपने ज्योतिर्लिंग की स्थापना करने के पश्चात इसे पुनः मृत्युलोक में त्रिशूल के माध्यम से जोड़ दिया। कहते हैं ब्रह्माजी का एक दिन पूरा होने पर प्रलय आती है परंतु इस काशी नगरी का नाश असंभव है, क्योंकि प्रलय के समय शिवजी इस काशी नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं तथा सब शांत हो जाने पर काशी को पृथ्वीलोक से जोड़ देते हैं। इसलिए मुक्ति की कामना करने वालों को काशी जाना चाहिए । यहां के दर्शनों से हर प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती है। काशी मोक्ष देने वाली नगरी के रूप में प्रसिद्ध है।
संसार के समस्त प्राणियों के मध्य में सत्व रूप में और बाहर तामस रूप में विराजमान परमात्मा भगवान शिव ही हैं। सत्व आदि गुणों से युक्त वही रुद्र हैं, जो सगुण होते हुए निर्गुण और निर्गुण होते हुए सगुण हैं। उन कल्याणकारी भगवान शिव को प्रणाम करके रुद्र बोले हे विश्वनाथ! महेश्वर लोकहित की कामना से आपको यहां विराजमान रहना चाहिए। मैं आपके अंश से उत्पन्न हूं। आप मुझ पर कृपा करें और देवी पार्वती सहित यहीं पर निवास करें।
ब्राह्मणो! जब विश्वनाथ ने भगवान शिव से इस प्रकार प्रार्थना की तब भगवान शिव संसार के कल्याण के लिए काशी में देवी पार्वती सहित निवास करने लगे। उसी दिन से काशी सर्वश्रेष्ठ नगरी हो गई।